व्यस्त सड़क के किनारे रह रहे हैं तो सावधान रहें, बच्चे पर होगा ये असर
सेहतराग टीम
ऑटिज्म यानी बच्चों में आत्म केंद्रता की बीमारी। बच्चा हर काम सही करेगा मगर अपने आसपास से लगाव नहीं रखेगा। लोगों से बात करने से हिचकेगा। एक तरह से उसका कोई सामाजिक जीवन नहीं होगा। मगर ऐसा होता क्यों है? आखिर किस तरह के बच्चों में इसके होने का जोखिम ज्यादा होता है? क्या माता-पिता की उम्र, उनके रहन-सहन, परिवेश आदि का इस बीमारी से सीधे कोई संबंध है? दरअसल इस बारे में पूरी दुनिया में लगातार शोध हो रहे हैं और हम ऐसे ही शोधों के कुछ निष्कर्ष आपके लिए लेकर आए हैं।
सड़क किनारे न बनाएं घर
रौनक और शोर शराबे के शौकीन लोग अकसर सड़क के आसपास अपना घर बनाने का सपना देखते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को थोड़ा चौकन्ना होने की जरूरत है क्योंकि ऐसी जगहों पर रहने वालों के बच्चों में ऑटिज्म होने का खतरा दो गुना तक बढ़ सकता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है।
ऑटिज्म अर्थात स्वलीनता एक ऐसी बीमारी है, जिसके शिकार बच्चे अपने आप में खोए रहते हैं, उन्हें दीन दुनिया की कोई खबर नहीं रहती। वह सामाजिक रूप से अलग-थलग रहते हैं, किसी से घुलते मिलते नहीं और बात करने से भी हिचकते हैं। ऐसे बच्चों को पढ़ने लिखने में समस्या होती है और उनके दिमाग और हाथ पैर के बीच तालमेल नहीं बन पाता, जिससे उनका शरीर किसी घटना पर प्रतिक्रिया नहीं दे पाता।
इस बीमारी के कारणों का पता लगाने के लिए दुनियाभर में तरह तरह के शोध और अध्ययन किए जा रहे हैं। एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि व्यस्त सड़कों के आसपास जन्म लेने वाले बच्चों में ऑटिज्म का खतरा शांत और प्रदूषण रहित इलाकों में जन्म लेने वाले बच्चों की तुलना में दोगुना तक बढ़ जाता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार भीड़-भाड़ वाली सड़कों पर कई गाड़ियां आती-जाती हैं। गर्भवती महिलाएं इनसे निकलने वाले धुएं के संपर्क में आती हैं जो गर्भ में पल रहे शिशु के मस्तिष्क पर काफी बुरा असर डालता है। इसके चलते उनके पैदाइश के पहले वर्ष के दौरान ऑटिज्म होने की आशंका बढ़ जाती। कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों ने इसके लिए ऑटिज्म के शिकार 279 बच्चों और 245 स्वस्थ बच्चों की उम्र और उनके पारिवारिक परिवेश की तुलना कर अध्ययन किया। यातायात प्रदूषण वाले क्षेत्र के घरों में रहने वाले बच्चों में ऑटिज्म होने की आशंका बहुत अधिक जाती है।
कब चपेट में आता है बच्चा
मालूम हो कि 100 में से एक बच्चा जन्म के शुरुआती वर्ष में ऑटिज्म की चपेट में आता है। लेकिन इस बीमारी के लक्षण दूसरे वर्ष में नजर आने शुरू होते हैं। इस बीमारी से ग्रसित बच्चे दूसरों के साथ आसानी से संवाद नहीं कर पाते।
वैज्ञानिक यातायात प्रदूषण और ऑटिज्म के बीच संबंधों की संभावना लंबे समय से तलाश कर रहे हैं। उनका कहना है कि वे इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। शोधकर्ता अपने इस काम को बेहद महत्त्वपूर्ण मान रहे हैं। उनका कहना है कि यह बात तो हम लंबे वक्त से जानते थे कि वायु प्रदूषण हमारे फेफड़ों और विशेष कर बच्चों के लिए खतरनाक है। अब हम वायु प्रदूषण के दिमाग पर असर को लेकर आगे अध्ययन कर रहे हैं। ये निष्कर्ष आर्काईव्स ऑफ जनरल साइकाइट्री नाम की पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
इसी तरह के एक अन्य अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला कि माता पिता की उम्र में यदि अधिक अंतर हो या वह दोनो कम उम्र हों तो बच्चों के ऑटिज्म की चपेट में आने का जोखिम बढ़ जाता है।
माता पिता की उम्र भी रखती है मायने
न्यूयार्क के माउंट सिनाई स्थित इकान स्कूल ऑफ मेडिसिन द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार माता पिता की उम्र में अधिक अंतर होने से उनके बच्चों में ऑटिज्म का खतरा अधिक होता है।
माता पिता के बीच यदि 10 साल या इससे ज्यादा का अंतर हो तो उनके बच्चों में ‘ऑटिज्म’ का खतरा अधिक होता है। इस अध्ययन के तहत पांच देशों में 57 लाख बच्चों को शामिल किया गया। इसमें उम्रदराज माता-पिता और किशोर माता-पिता के बच्चों में ऑटिज्म का ज्यादा खतरा पाया गया।
शोधकर्ताओं के मुताबिक 50 साल से अधिक उम्र के पिता से जन्मे बच्चों में ऑटिज्म की दर 66 फीसदी अधिक पाई गई जबकि 20 से 30 साल के पिता के बच्चों की तुलना में 40 से 50 साल के पिता के बच्चों में 28 फीसदी अधिक पाई गई। उन्होंने यह भी पाया कि 20 से 30 साल के बीच की माताओं की तुलना में किशोर माताओं से जन्मे बच्चों में ऑटिज्म की दर 18 प्रतिशत अधिक मिली।
20 से 30 साल की उम्र वाली माताओं की तुलना में 40 से 50 साल के बीच की उम्र की माताओं से जन्मे बच्चों में ऑटिज्म की दर 15 फीसदी अधिक रही। अध्ययन में यह भी पाया गया कि माता पिता की उम्र में अंतर बढ़ने के साथ साथ ऑटिज्म की दर में भी वृद्धि पाई गई।
35 से 44 साल के पिता में और माता पिता के उम्र अंतराल में 10 साल या इससे अधिक अंतर होने पर इसकी दर सर्वाधिक है। वहीं, 50 साल से अधिक के पिता से जन्मे बच्चों में यह जोखिम अधिक है। यह अध्ययन मोलीकुलर साइकेट्री जर्नल में प्रकाशित हुआ।
परिवेश का भी असर
एक अन्य अध्ययन में दावा किया गया है कि ऑटिज्म पीडि़त बच्चे जब अपने आसपास की चीजों को देखते हैं, तो उनका दिमाग आपस में तालमेल नहीं बिठा पाता। इस स्थिति में उन्हें ठीक वैसा अहसास होता है, जैसे बुरे ढंग से डबिंग की गई किसी फिल्म को देखने पर आम इनसान को होता है। ऐसे में बच्चे अपनी आंख ओर कान का इस्तेमाल कर आसपास की घटनाओं को जोड़ने का प्रयास करते हैं।
'वेंडरबिल्ट ब्रेन इंस्टीट्यूट' के शोधकर्ताओं ने इस नयी खोज को बहुत अहम माना है और उन्हें उम्मीद है कि इससे ऑटिज्म के लिए नये इलाज ढूंढने में मदद मिलेगी।
शोधकर्ताओं का मानना है कि अगर शुरुआती दौर में ही बच्चों की संवेदक कार्यक्षमता को दुरुस्त किया जा सके तो उनके बातचीत करने के तरीकों को सुधारा जा सकता है। यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है जो इस ओर इशारा करता है कि संवदेक गतिविधियों में रुकावट आने पर ऑटिज्म पीडि़त बच्चों के बातचीत करने का तरीका प्रभावित होता है। शोधकर्ताओं ने 6 से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों पर अध्ययन किया।
ऑटिज्म पीडि़त बच्चों और सामान्य रूप से बढ़ने वाले बच्चों की तुलना के दौरान दोनों समूहों के बच्चों को कंप्यूटर पर अलग-अलग तरह के टास्क दिए गए। शोधकर्ताओं ने पाया कि ऑटिज्म पीडि़त बच्चों को आवाज और वीडियो के बीच सामंजस्य बिठाने में दिक्कत हुई जिससे वह टास्क में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सके।
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